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गुरुवार, 7 जुलाई 2011

अन्ना हजारे से सहमत हों या असहमत भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जरूरी है



आज अन्ना हजारे और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को लेकर कई सवाल उठाये जा रहे हैं। साहित्यकार मुद्राराक्षस ने (जनसंदेश टाइम्स, 4 जुलाई 2011) आरोप लगाया है कि अन्ना भाजपा व राष्ट्रीय सेवक संघ का मुखौटा हैं और अन्ना के रूप में इन्हें ‘आसान झंडा’ मिल गया है। जन लोकपाल समिति में ऐसे लोग शामिल हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। अन्ना हजारे की यह माँग कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में ले आया जाय, संविधान के विरुद्ध है। मुद्राराक्षस ने यहाँ तक सवाल उठाया है कि अन्ना और उनकी सिविल सोसायटी पर संसद और संविधान की अवमानना का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाय ? ऐसे में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की पड़ताल जरूरी है क्योंकि आज यह आन्दोलन अपने अगले चरण की ओर अग्रसर है और जन आंदोलन की शक्तियाँ वैचारिक और सांगठनिक तैयारी में जुटी हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि तमाम पार्टियाँ सत्ता की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख-दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं। वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे  भरने के लिए सिविल सोसाइटी और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे इसी यथार्थ की उपज हैं। 

इस आंदोलन में, अन्ना हजारे के व्यक्तित्व और विचार में कमियाँ और कमजोरियाँ मिल सकती हैं। वे गाँधीवादी हैं। खुद गाँधीजी अपने तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद  स्वाधीनता आन्दोलन के बड़े नेता रहे हैं। इसी तरह अन्ना हजारे के विचारों और काम करने के तरीकों में अन्तर्विरोध संभव है लेकिन इसकी वजह से उनके आन्दोलन के महत्व को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा महत्व यही है कि इनके द्वारा उठाया गया भ्रष्टाचार का मुद््दा आज केन्दीय मुद्दा बन गया है जिसने समाज के हर तबके को काफी गहरे संवेदित किया है और इसे खत्म करने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं। अन्ना हजारे और उनके आंदोलन की इस उपलब्धि को क्या अनदेखा किया जा सकता है कि 42 सालों से सरकार के ठंढ़े बस्ते में पड़ा लोकपाल विधेयक बाहर आया, उसे मजबूत और प्रभावकारी बनाने की चर्चा हो रही है, और इस पर सर्वदलीय बैठक आयोजित हुई।

हमारे यहाँ ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जो हर आन्दोलनों से रहते तो दूर हैं, पर सूँघने की इनकी नाक बड़ी लम्बी होती है। हर ओर इन्हें साजिश ही नजर आती है। ये अन्ना द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ पर तो खूब शोर मचाते हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में अन्ना ने जो सफाई दी, वह इन्हें सुनाई नहीं देता है। किसानों की आत्म हत्या, बहुराष्ट्रीय निगमों का शोषण, चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों का गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन के लिए बाध्य किया जाना जैसे मुद्दे तो इन्हें संवेदित करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जब प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात आती है तो वह उन्हें देश में आजादी के बाद पहली बार अल्पसंख्यक सिख समुदाय के प्रधानमंत्री को अपमानित करने का षडयंत्र नजर आता है। अपनी बौखलाहट में ये अन्ना और सिविल सोसाइटी पर जाँच बैठा कर मुकदमा चलाने की माँग करते हैं। ये इस सच्चाई को भुला बैठते हैं कि प्रधानमंत्री किसी समुदाय विशेष का न होकर वह सरकार का प्रतिनिधि होता है। हमारे इन बौद्धिकों को अन्ना द्वारा किसान आत्महत्याओं पर भूख हड़ताल न करने पर शिकायत है लेकिन किसान आंदोलनों पर सरकार के दमन पर ये चुप्पी साध लेते हैं।

हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद की देन है और खासतौर से 1990 के बाद सरकार ने जिन उदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल किया है, उसी का परिणाम है। यह पूँजीवाद लूट और दमन की व्यवस्था है। इसलिए अगर भ्रष्टाचार मिटाना है तो हमें पूँजीवाद और अमीरपरस्त सरकारी नीतियों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन और जागरण का अभियान चलाने की जरूरत है। यही वह जगह है जहाँ भाजपा जैसे दलों के लिए स्पेस नहीं रह जाता है। इस मामले में भाजपा काँग्रेस से बहुत अलग नहीं है। भले ही आज आन्दोलन से तात्कालिक लाभ बटोरने  के लिए भाजपा जैसे दल अन्ना को समर्थन दे रहे हों तथा भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलित हों लेकिन जैसे जैसे आंदोलन अपने तीखे रूप में आगे बढ़ेगा, इन्हें हम आंदोलन से बाहर ही देखेंगे।

कहा जा रहा है कि अन्ना हजारे जिस लोकपाल को लाना चाहते हैं, वह संसद और सविधान की अवमानना है। पर सच्चाई क्या है ? हमारी सरकार कहती है कि यहाँ कानून का राज है। लेकिन विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमारे यहाँ कोई मजबूत कानून की व्यवस्था नहीं है। मामला चाहे बोफोर्स घोटाले का हो या भोपाल गैस काँड का या पिछले दिनों के तमाम घोटालों का हो, इसने हमारे कानून की सीमाएँ उजागर कर दी हैं। तब तो एक ऐसी संस्था का होना हमारे लोकतंत्र के बने रहने के लिए जरूरी है। यह संस्था जनता का लोकपाल ही हो सकती है जिसके पास पूरा अधिकार व क्षमता हो और वह सरकार के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त व स्वतंत्र हो तथा जिसके दायरे में प्रधानमंत्री से लेकर सारे लोगों को शामिल किया जाय। 

प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने की बात को लेकर मतभेद है लेकिन अतीत में प्रधानमंत्री जैसे पद पर जब अंगुली उठती रही है तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है। सर्वदलीय बैठक में कई दलों के प्रवक्ता ने प्रधानमंत्री को इस दायरे में लाने की बात कही है और स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उनसे मिलने गये सम्पादकों से कहा कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। फिर समस्या क्या है ? हमारा संविधान भी कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। अगर भ्रष्टाचार कैसर जैसी असाध्य बीमारी का रूप ले चुका है तो उसका उपाय भी तो उसी स्तर पर करना होगा। ऐसे में सांसदो और राजनीतिक दलों की नैतिकता दांव पर है और सारे देश का ध्यान इस ओर है कि मानसून सत्र में देश का संसद लोकपाल विधेयक पर क्या रुख अपनाता है। इसके पास भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छा शक्ति है या नहीं ?

अन्त में, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लम्बी है। मजबूत और प्रभावकारी लोकपाल का गठन इसका पहला चरण हो सकता है। हम अन्ना हजारे से सहमत हो सकते है, असहमत हो सकते हैं या उनके विरोधी हो सकते है लेकिन यदि हम समझते है कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्र, समाज, जीवन, राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा है तो समय की माँग है कि इस संघर्ष को अन्ना हजारे और उनके चन्द साथियों पर न छोड़कर देश के जगरूक नागरिक, देशभक्त, बुद्धिजीवी, ईमानदार राजनीतिज्ञ, लोकतांत्रिक संस्थाएँं, जन संगठन आगे आयें और इसे व्यापक जन आंदोलन का रूप दें।

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KAUSHAL KISHOR

CONVENOR
JAN SANSKRITI MANCH
LUCKNOW

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

Bhrashtachar ka har star par virodh hona chahiye. aapki is baat se main sahmat hoon. aam aadmi isse trasht hai aur aziz aa chuka ha. lekin ye kahna ki bhrashtachar punjivaad ki den ha aur 1990 ke baad ki kathith ameerparasht neetiyon ka parinam ha sahi nahin. 1990 se pehle bhi bhrashtachar tha. bas tab jan suchna ke itne sadhan nahin the. aapne khud hi bofor aur bhopal gas kand ke udaharan diye hain. dono 1990 se pehle ke hain.

rahi baat bhrashtachaar par nakel dalne wale sakht kanoon ki to wo hain. kewal unka uchit karyanvayan nahin kiya gaya. aisa nahin ha to kalmadi, kanimojhi aur jane kitne MP, MLA jail kaise pahunche.
Duniya ke kai deshon me sakt kanoon hain phir bhi we hamse bhrashtachaar me aage hain. China iska sabse bada udaharan ha. kahin na kahin mool baat system ke REFORM ki hai. vidaeka aur karya palika dono ko jyada samvedansheel aur janomukhi banane ke rashte khojne honge. iski shuruaat aap aur hum se hi hoti ha.

We must realize that in Democracy WE ARE THE BOSS & we must bring change through vote power.

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

यथार्थ है ....अन्ना और बाबा रामदेव ने विपक्ष की शून्यता को भरने का प्रयास किया है. आज आवश्यकता इस बात की है कि शासन की नीतियों का पोस्टमार्टम किया जाय न कि अन्ना और बाबा का. भ्रष्टाचार का मुद्दा जनमुद्दा है...सरकार को नंगा करने का मुद्दा है ....बेईमान मंत्रियों की शवयात्रा निकालने का मुद्दा है ...ज़ाहिर है सत्ता में बैठे लोग इस आन्दोलन को विफल करने का हर संभव-असंभव प्रयास करेंगे. पर मेरा निवेदन है कि केवल विरोध और आन्दोलन से काम नहीं चलेगा. राजनीति में सत्याचरण की शून्यता को भरने की ज़रुरत है ...और यह होगा तब जब हम वर्त्तमान का अच्छा विकल्प देश की संसद को देंगे. इमानदार लोगों को चुनाव मैदान में सामने आने की आवश्यकता है.

Binay kr. Singh ने कहा…

Rastre ke prati sahid hua biro ki kasam jo indian is bharastachar ko mitane mai sath na dega. Azadi ke 64 sal hone cahle par aj bhi hum gulami ki jindagi bita rahe hai kuch gine chune raiso ka.
EK KAHANI;- Azadi ki ladai mai kuch log aise bhi the jo hindustan ko azad karane mai apni sari sampati ka dan kar diye the ki desh azad hoga to unko samman milega par un logo ka pariwar aj bhi khanabadosh ki jindagi gujar basar kar rahe hai. qya ye thik hai ?
aj jo sata(rajgadi) par hai o kale dhan ka raja hai ur bharastachar ko mitane bhi nahi dega.
to phir lagbhag 60 carore garib janta (votar) ka rakhwala kaun banega?
Janta to kamne khane mai hi paresan hai, Rajneta ur Amir lutane mai paresan hai. Hum masage lekhane ur padhne walo ki jimaidari hai phir se rastra ko in dhadhabajo se ajad kara kar pure system ko badlna.
JAI HIND

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