राज्यों को और अधिक शक्तियां एवं संसाधन सौंपने से राष्ट्र की उन्नति तीव्र गति से होगी
केंद्र तथा राज्यों में शक्तियों का वितरण एक ऐसी विशेषता है जो संघात्मक संविधानों में प्रमुख है .प्रो.के.सी.व्हव्हियर के अनुसार -,''संघात्मक सिद्धांत से तात्पर्य है ,संघ व् राज्यों में शक्तियों का वितरण ऐसी रीति से किया जाये कि दोनों अपने अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हों ,किन्तु एक दूसरे के सहयोगी भी हों.''इसका तात्पर्य यह है कि राज्यों को कुछ सीमा तक स्वायत्ता होनी चाहिए .अमेरिकन संविधान संघात्मक संविधानों का जन्म दाता है उसमे केंद्र की शक्तियां परिभाषित की गयी है ,राज्यों की नहीं .अमेरिकन संविधान में अवशिष्ट शक्तियां राज्यों में निहित की गयी हैं .परिणाम स्वरुप राज्य अधिक शक्तिशाली थे ;किन्तु कालांतर में आवश्यकता पड़ने पर केंद्र की शक्तियां बढती गयी और राज्यों की स्वायत्ता का ह्रास होता गया वर्तमान में स्थिति यह है कि राज्यों की स्वायत्ता नाम मात्र की रह गयी है.
भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण की जो योजना अपनाई गयी है उसमे प्रारंभ से ही केंद्र को सशक्त बनाया गया है कारण मात्र यही था की इससे देश की एकता एवं अखंडता को सुरक्षित रखा जा सके तथा उसका समुचित आर्थिक विकास हो सके और इस सबके लिए अनु.२४५-२५५ के अधीन संघ और राज्यों में विधायी शक्तियों के वितरण से संबंधित उपबंध हैं जिनमे संघ सूची के विषयों पर केंद्र सरकार व् राज्य सूची के विषयों पर राज्य सरकार विधि बना सकती हैजबकि अवशिष्ट शक्तियां संघ सरकार में ही निहित हैं समवर्ती सूची पर संघ और राज्य दोनों विधि बना सकते हैं किन्तु यदि दोनों में असंगति है तो संघ द्वारा बनाई गयी विधि राज्य विधि पर अभिभावी होगी .इसके अतिरिक्त अनु.२४९ ,२५०,२५२,२५३ और ३५६ के अधीन उल्लिखित परिस्थितियों में संघ को राज्य सूची के विषय पर विधि बनाने की शक्ति है .अनु.२५६ से २६३ के अधीन प्रशासनिक शक्तियों के वितरण की व्यवस्था की गयी है .इस मामले में विभिन्न शक्तियों से राज्यों पर केन्द्रीय नियंत्रण का उपबंध किया गया है .इस प्रकार हम देखते हैं की राज्यों की स्वायत्ता बिलकुल समाप्त हो जाती है .इसी प्रकार राजस्व के वितरण के क्षेत्र में भी संघ का राज्यों पर पर्याप्त नियंत्रण है और यही आज राष्ट्र की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा कही जा सकती है संघ की आय के स्रोत राज्य की अपेक्षा अधिक हैं जबकि जनता की कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन का उत्तरदायित्व राज्यों पर अधिक है इस प्रयोजन के लिए राज्योंको पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है .यह सत्य है की संघ द्वारा वसूले गए करों से हुई आय की पर्याप्त मात्र राज्यों को दी जाती है .राज्यों को दी जाने वाली रकम वित्त आयोग की सिफारिश पर दी जाती है किन्तु व्यव्हार में वित्त आयोग से अधिक महत्वपूर्ण योजना आयोग हो गया है जोकि कानून द्वारा स्थापित निकाय न होकर एक राजनीतिक संस्था है .ये अनुदान केंद्र की इच्छा पर निर्भर करते हैं .एक वर्ष में राज्यों को दिए जाने वाले कुछ अनुदान का ३० प्रतिशत वित्त आयोग के अधिकार में है और ७०%वैविकिक अनुदान है जो योजना आयोग की सिफारिश पर राज्यों को दिया जाता है और जिस कारण राज्यों द्वारा जनता के कल्याण की योजनायें संसाधनों के अभाव में लटक जाती हैं .
आर्थिक दृष्टिकोण से वर्तमान में किसी भी राज्य को आत्मनिर्भर नहीं कहा जा सकता है जबकि सभ्यता के विकास व् वैज्ञानिक प्रगति का युग है .लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता की मांगे निरंतर बढ़ रही हैं इन मांगों की पूर्ति हेतु राज्यों को निरंतर अधिक आर्थिक स्रोतों आवश्यकता साथ ही अलग अलग राज्य अलग अलग समस्या से ग्रस्त हैं जिसमे क्षेत्रवाद ,भाषावाद जातिवाद ,नक्सलवाद आदि प्रमुख हैं .ये समस्याएं जहाँ राज्य के स्थायित्व में निरंतर कष्ट उत्पन्न करती है वहीँ केंद्र के लिए मात्र छोटी सी घटना होती है.इस तरह की घटनाओं के प्रतिफल स्वरुप होने वाली दुर्घटनाओं का जो खामियाजा सम्बंधित सरकार को अपने अस्तित्व पर भुगतना पड़ता है वैसा केंद्र सरकार को नहीं करना होता इसलिए ऐसी समस्याओं से जिस दृढ़ता व् मनोबल से राज्य सरकार निबट सकती है केंद्र सरकार नहीं कर सकती बशर्ते इनसे निबटने की पर्याप्त शक्तियां केंद्र के पास हों.
इस प्रकार जहाँ तक हम देखते हैं राज्यों के पास शक्तियां व् संसाधन सीमित मात्र में उपलब्ध हैं और राज्यों को अपने निर्धारित कार्यों के संपादन के लिए केंद्रीय सरकार का मुहं देखना पड़ता है राज्य सरकारों को दिए गए दायित्व के अनुरूप उन्हें aay के स्रोत नहीं दिए गए हैं इस सन्दर्भ में मद्रास के poorv मुख्यमंत्री अन्नादुरै का कथन उल्लेखनीय है.उनके अनुसार-''वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था उत्तरदायित्वों में भाग लेने की दृष्टि से संघात्मक है किन्तु साधनों की प्राप्ति की दृष्टि से एकात्मक है .''और यह वास्तविकता है .सीमित संसाधनों की दृष्टि से ही संविधान में जो कल्याणकारी राज्य का आदर्श रखा गया है उसकी स्थापना मुश्किल है .बात बात में केन्द्रीय अनुदान की आवशयकता विकास की दृष्टि से राज्यों को पीछे धकेल रही है .सरकारिया आयोग की सिफारिशों में भी संविधान में संशोधन करके निगम कर ,मॉल के पारेषण पर कर तथा विज्ञापन और संवाद प्रसारण पर कर को राज्यों में बांटे जाने की सिफारिश की गयी है .
केंद्र द्वारा राज्यों को अधिक शक्तियां व् संसाधन सौंपने का परिणाम न केवल राज्य बल्कि राष्ट्र की प्रगति में तेज़ी ला सकता है उदहारण के लिए अभी हाल में ही ३० जुलाई २०१० के अमर उजाला का प्रमुख समाचार इस बात की पुष्टि करता है .अमर उजाला कहता है कि ,''शिक्षा का अधिकार कानून [आर टी ई ] को amli जामा पहनाने के लिए राज्य सरकारों को अब ज्यादा पैसे मिलेंगे .केंद्र ने इसके लिए राज्यों और अपने बीच हिस्सेदारी का अनुपात नए सिरे से तय किया है .अब राज्य सरकारों को इस कानून के क्रियान्वयन में महज ३२ फीसदी खर्च करने होंगे जबकि केंद्र सरकार 68 फीसदी खर्च उठाएगी इस प्रकार राज्यों को यह स्वायत्ता मिलने पर आर टी ई की राह का रोड़ा दूर होगा और शिक्षा का अधिकार अधिक लोगों तक पहुँच बना कर राष्ट्र के लिए प्रगति दायक होगा .
इसी तरह ३० जुलाई २०१० में गृहमंत्री पी चिदंबरम के बयाँ को प्रमुखता दी गयी है जिसमे उन्होंने तीन साल के नक्सलवाद को ख़त्म करने का दावा किया है .हिंदुस्तान के अनुसार-'' गृहमंत्री ने सदस्यों को आश्वासन दिया है कि नक्सलवाद से निपटने के लिए केंद्र व् राज्य पूरी तरह से मिलकर काम कर रहे हैं .''इसके तहत राज्यों को और हेलीकोप्टर उपलब्ध कराये जायेंगे साथ ही प्रभावित राज्यों में ४०० नए थाने भी खोलने के लिए केन्द्रीय मदद दी जाएगी इस मदद में ८० प्रतिशत केंद्र का और २० प्रतिशत राज्यों की भागीदारी होगी .चार राज्यों ने अपने यहाँ नक्सलवाद से निपटने के लिए युनिफायिद कमान बनाने का भी फैसला किया है चिदंबरम ने ये भी जानकारी दी कि प्रभावित राज्यों में विकास कार्यों को तेज़ करने के लिए योजना आयोग के सदस्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समूह भी स्थापित किया गया है इससे स्थानीय ज़रूरतों और स्थितियों के अनुसार विकास कार्यों को आगे बढाया जा सकेगा .
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि केवल मजबूत केंद्र से ही राष्ट्र की प्रगति असंभव है इसे संभव बनाने के लिए समृद्ध राज्य का होना भी ज़रूरी है और आज के इस युग में राज्यों द्वारा अपने विकास के लिए सुसमृद्ध होना आवश्यक है और ऐसा केंद्र द्वारा राज्यों को अधिक शक्तियां व् संसाधन सौंपने पर ही संभव है .
''मुमकिन है सफ़र हों आसां ,
कुछ साथ तो चलकर देखें .
कुछ तुम भी बदलकर देखो,
कुछ हम भी बदलकर देखें.
शालिनी कौशिक
1 टिप्पणी:
आपकी प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!
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