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शनिवार, 23 जुलाई 2011

*** राहुल की राजनीतिक सक्रियता - एस. शंकर ***

राहुल गांधी स्वत: जब भी कुछ महत्वपूर्ण बोलने की कोशिश करते हैं तो गड़बड़ हो जाती है। प्राय: कांग्रेस के रणनीतिकारों को स्पष्टीकरण देने आना पड़ता है। राहुल को सक्रिय राजनीति में आए 13 वर्ष हो चुके हैं। ऐसी स्थिति में ये अच्छे लक्षण नहीं कि बार-बार उनके बयान पर सफाई देनी पड़े। 'एक प्रतिशत' आतंकी घटनाओं
के न रुक सकने वाला नवीनतम कथन भी वैसा ही साबित हुआ। दो महीने पहले भच4�र्ष हो चुके हैं। ऐसी स्थिति में ये अच्छे लक्षण नहीं क�6 में असत्य साबित हुए। इससे पहले राहुल प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को एक जैसा बता चुके हैं। ऐसे बयानों से कांग्रेस को कुछ चुनावी लाभ भले मिले, किंतु देश का हित नहीं हो रहा। शत्रु और मित्र के प्रति ऐसी समदर्शिता से आतंकवाद विरोधी लड़ाई कमजोर ही हुई है।

          विवादित ढांचा विध्वंस विषय पर भी राहुल ने यह कहकर कांग्रेस को झेंपने को मजबूर कर दिया था कि यदि 'उनके परिवार का कोई व्यक्ति सत्ता में होता, तो ढांचा नहीं टूटता।' यह तो परोक्ष रूप से कांग्रेस और उसके ही प्रधानमंत्री नरसिंह राव पर अशोभनीय लांछन था। इससे पहले राहुल ने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को भी अपने परिवार की देन बताया था। उनके शब्द थे, 'एक बार मेरा परिवार कुछ तय कर लेता है तो उससे पीछे नहीं हटता। चाहे वह भारत की स्वतंत्रता हो, पाकिस्तान को तोड़ना हो या देश को 21वीं सदी में ले जाना हो।' इस एक ही वाक्य में तीन विचित्र कथन थे।

       भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की हेठी, बांग्लादेश के मुक्ति-संग्राम का अपमान तथा काल-गति पर दावा। यह सब बचकाना ही कहा जा सकता है। जितने साधन, सलाहकार उन्हें उपलब्ध हैं और देश-विदेश देखने का जितना उन्हें अवसर मिला है उससे उनकी बातों में इतना हल्कापन देखकर आश्चर्य होता है। राहुल की राजनीतिक पहलकदमी भी अभी तक कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई हैं। 13 वर्ष से 'भावी प्रधानमंत्री' के रूप में राजनीतिक सक्रियता का यह परिणाम निराशाजनक है। क्या इसीलिए वसंत साठे जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी प्रियंका गांधी को लाने की मांग कर रहे हैं? राहुल के अटपटे वचन केवल भाषण देने की रौ में की गई अनचाही भूल नहीं हैं। 
   सितंबर, 2005 में एक साप्ताहिक पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वह तो 25 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री बन सकते थे। केवल पुराने कांग्रेसियों पर दया करके उन्होंने ऐसा नहीं किया। राहुल गांधी के उस 'प्रथम विस्तृत साक्षात्कार' पर जब हलचल मची तो कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उसे साक्षात्कार मानने से ही इंकार कर दिया! सफाई दी कि वह तो अनौपचारिक बातचीत हो रही थी।

चिंतनीय बात यह है कि 13 वर्ष के राजनीतिक अनुभव के बाद भी राहुल देश के लिए कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं दे पाए हैं। उनके चाचा संजय और पिता राजीव, दोनो ही अपने-अपने विशिष्ट कार्यक्रमों से जाने गए थे। वे कार्यक्रम कितने सफल हुए, यह दूसरी बात है, जबकि राहुल देश में लंबे समय से मौजूद मुद्दों, तत्वों की पहचान तक करने में गड़बड़ा जाते हैं। जब पूरा देश अन्ना हजारे के बहाने भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपना आक्रोश प्रकट कर रहा था, तो राहुल पूरे सीन से ही गायब रहे। वह कोई बयान तक नहीं दे पाए। ऐसी स्थिति में राजनीतिक समस्याओं का समाधान देने की संभावना अनुमान का ही विषय है। यदि बागडोर उनके हाथ आई, तब क्या वही होगा जैसे पुराने जमाने में होता था कि भोले शहजादे के नाम पर अदृश्य तत्व शासन करेंगे। बोफोर्स, क्वात्रोची और संदिग्ध मिशनरियों के मामले में परिवार की भूमिका ने पर्याप्त संकेत दे दिए हैं। परिवार के निकटवर्ती रहे नेता अरुण नेहरू ने भी कहा था कि भारत में अवैध रूप से रह रहे विदेशी मिशनरियों को बाहर करने के निर्णय पर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने आपत्ति की थी। एक अन्य मामले में न्यायमूर्ति वाधवा आयोग ने एक ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी को अवैध मतांतरण कराने में लिप्त पाया था। उस मिशनरी की विधवा को कांग्रेस नेताओं ने बड़ा राष्ट्रीय सम्मान दिया। क्यों? अभी एक नक्सल समर्थक को एक सर्वोच्च आयोग की समिति में नियुक्त किया गया है, जबकि उसके विरुद्ध न्यायालय में राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चल रहा है। यह सब कौन लोग कर रहे हैं और इस पर राहुल गांधी क्या सोचते हैं, कुछ सोचते भी हैं या नहीं? इन सब मुद्दों पर आम कांग्रेसियों की भावना निश्चय ही वह नहीं है जो उनके आला कर रहे हैं। अत: यह संदेह निराधार नहीं कि वास्तविक सत्ता अदृश्य लोगों के हाथ में जा रही है। 

ये बातें असंबद्ध नहीं हैं। देश-विदेश के मीडिया का एक प्रभावशाली हिस्सा 10, जनपथ का बचाव कर रहा है। वह कभी प्रश्न नहीं उठाता कि कुछ लोग देश की संवैधानिक प्रणाली से हटकर सत्ता का प्रयोग कर रहे हैं। जिस पद या समिति का देश के संविधान में कोई उल्लेख तक नहीं, वह हमारे सर्वोच्च नेताओं को निर्देश देती रहती है। यहां तक कि उनसे हिसाब तक मांगती है। ऐसे 'सलाहकार' रूपी सुपर-शासक किसके प्रति जवाबदेह हैं? अभी सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक ऐसे कानून का प्रस्ताव दिया गया है, जो कानूनी रूप से बहुसंख्यक समाज के मुंह पर ताला लगा देगा। देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाली एक सुपर-अथॉरिटी होगी, जो इस नाम पर राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर देगी। इस अथॉरिटी के सदस्यों में बहुसंख्या 'अल्पसंख्यकों' की होगी। अर्थात यह नया कानून स्थायी रूप से मानकर चलेगा कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक गड़बड़ी निरपवाद रूप से बहुसंख्यक ही करेंगे। न्याय, सच्चाई और संविधान के साथ ऐसा भयंकर मजाक आखिर कौन लोग कर रहे हैं? क्या धीरे-धीरे भारत पर एक प्रकार का विजातीय शासन स्थापित हो रहा है?
[एस. शंकर: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
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डा. के कृष्णा राव
प्रांतीय संवाद प्रभारी
म.प्र. (पश्चिम)
09425451262

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अच्छा आलेख!

Shalini kaushik ने कहा…

aalekh achchha hai kintu rahul ji ko lekar kuchh jyada hi negetive thoughts janta ke kuchh numainde rakhte hain jo galat hai ve achchha kam kar rahe hain aur aage aage dekhiye hota hai kya

blogtaknik ने कहा…

वैसे होता यही है जो सत्ता पक्ष का होता है उसी पर ज्यादा आरोप लगते है. पर एक चीज यहाँ साफ दिखती है. मीडिया की भूमिका अब ब्लॉगर. फेसबुक और ऑरकुट वाले निभा रहें है.

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