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सोमवार, 4 जुलाई 2011

विदुर नीति और चाणक्य निति ||

नीति विशारद विदुर जी कहते हैं कि जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
किसी भी कार्य को प्रारंभ करने पहले यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हम उसके लिये या वह हमारे लिये उपयुक्त है कि नहीं। अपनी शक्ति से अधिक का कार्य और कोई वस्तु पाने की कामना करना स्वयं के लिये ही कष्टदायी होता है।
न केवल अपनी शक्ति का बल्कि अपने स्वभाव का भी अवलोकन करना चाहिये। अनेक लोग क्रोध करने पर स्वतः ही कांपने लगते हैं तो अनेक लोग निराशा होने पर मानसिक संताप का शिकार होते हैं। अतः इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारे जिस मानसिक भाव का बोझ हमारी यह देह नहीं उठा पाती उसे अपने मन में ही न आने दें।
कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम कोई काम या कामना करते हैं तो उस समय हमें अपनी आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी अवलोकन करना चाहिये। कभी कभी गुस्से या प्रसन्नता के कारण हमारा रक्त प्रवाह तीव्र हो जाता है और हम अपने मूल स्वभाव के विपरीत कोई कार्य करने के लिये तैयार हो जाते हैं और जिसका हमें बाद में दुःख भी होता है। अतः इसलिये विशेष अवसरों पर आत्ममुग्ध होने की बजाय आत्म चिंतन करते हुए कार्य करना चाहिए।
Fwd :- चाणक्य निति ||
धनविहीन पुरुष को वेश्या, शक्तिहीन राजा को प्रजा, जिसका फल झड गया है,
ऎसे वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं और भोजन कर लेने के बाद अतिथि उस घर
को छोड देता है ॥१७
जो माता अपने बेटे को पढाती नहीं, वह शत्रु है । उसी तरह पुत्र को न
पढानेवाला पिता पुत्र का बैरी है । क्योंकि (इस तरह माता-पिता की ना समझी
से वह पुत्र ) सभा में उसी तरह शोभित नहीं होता, जैसे हंसो के बीच में
बगुला ॥११॥
पहला कष्ट तो मूर्ख होना है, दूसरा कष्ट है जवानी और सब कष्टों से बढकर
कष्ट है, पराये घर में रहना ॥८
वे ही पुत्र, पुत्र हैं जो पिता के भक्त हैं । वही पिता, पिता है, हो
अपनी सन्तानका उचित रीति से पालन पोषण करता है । वही मित्र, मित्र है कि
जिसपर अपना विश्वास है और वही स्त्री स्त्री है कि जहाँ हृदय आनन्दित
होता है ॥४॥
समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह
कर ले, पर नीच सुरूपवती के साथ न करे । क्योंकि विवाह अपने समान कुल में
ही अच्छा होता है ॥१४॥
जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है, नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और
जिस घर में साँप रहता है उस घरमें जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसीन
किसी रोज उसकी मौत होगी ही ॥५॥
मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी कन्या किसी अच्छे खानदान वाले को दे ।
पुत्र को विद्याभ्यास में लगा दे । शत्रु को विपत्ति में फँसा दे और
मित्र को धर्मकार्य में लगा दे ॥३॥
मनुष्य का आचरण उसके कुल को बता देता है, उसका भाषण देश का पता दे देता
है, उसका आदर भाव प्रेम का परिचय दे देता है और शरीर भोजनका हाल कह
देताहै ॥२॥
कोयल का सौन्दर्य है उसकी बोली, स्त्री का सौन्दर्य है उसका पातिव्रत ।
कुरूप का सौन्दर्य है उसकी विद्या और तपस्वियों का सौन्दर्य है उनकी
क्षमाशक्ति ॥९॥
जहाँ एक के त्यागने से कोल की रक्षा हो सकती हो, वहाँ उस एक को त्याग दे
। यदि कुल के त्यागने से गाँव की रक्षा होती हो तो उस कुल को त्याग दे ।
यदि उस गाँव के त्यागने से जिले की रक्षा हो तो गाँव को त्याग दे और यदि
पृथ्वी के त्यागने से आत्मरक्षा सम्भव हो तो उस पृथ्वी को ही त्याग दे
॥१०
उद्योग करने पर दरिद्रता नहीं रह सकती । ईश्वर का बार बार स्मरण करते
रहने पर पाप नहीं हो सकता । चुप रहने पर लडाई झगडा नहीं हो सकता और जागते
हुए मनुष्य के पास भय नहीं टिक सकता ॥११॥
अतिशय रूपवती होने के कारण सीता हरी गई । अतिशय गर्व से रावण का नाश हुआ
। अतिशय दानी होने के कारण वलि को बँधना पडा । इसलिये लोगों को चाहिये कि
किसी बात में 'अति' न करें ॥१२॥
(वन) के एक ही फूले हुए और सुगन्धित वृक्ष ने सारे वन को उसी तरह
सुगन्धित कर दिया जैसे कोई सपूत अपने कुल की मर्यादा को उज्ज्वल कर देता
है ॥१४॥
उसी तरह वनके एक ही सूखे और अग्नि से जतते हुए वृक्ष के कारण सारा वन जल
कर खाक हो जाता है । जैसे किसी कुपूत के कारण खानदान का खानदान बदनाम हो
जाता है ॥१५।
शोक और सन्ताप देनेवाले बहुत से पुत्रों के होने से क्या लाभ ? अपने कुल
के अनुसार चलनेवाला एक ही पुत्र बहुत है कि जहाँ सारा कुल विश्राम कर सके
॥१७॥
पाँच वर्ष तक बच्चे का दुलार करे । फिर दस वर्ष तक उसे ताडना दे, किन्तु
सोलह वर्ष के हो जाने पर पुत्र को मित्र के समान समझे ॥१८॥
दंगा बगैरह खडा हो जाने पर, किसी दूसरे राजा के आक्रमण करने पर, भयानक
अकाल पडने पर और किसी दुष्ट का साथ हो जाने पर , जो मनुष्य भाग निकलता
है, वही जीवित रहता है ॥१९॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में से एक पदार्थ भी जिसको
सिध्द नहीं हो सका, ऎसे मनुष्य का मर्त्यलोक में बार-बार जन्म केवल मरने
के लिए होता है । और किसी काम के लिए नहीं ॥२०॥
जिस देश में मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहाँ भरपूर अन्न का संचय रहता है
और जहाँ स्त्री पुरुष में कलह नहीं होता, वहाँ बस यही समझ लो कि लक्ष्मी
स्वयं आकर विराज रही हैं ॥२१॥
आयु, कर्म, धन, विद्या, और मृत्यु ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब
कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है ॥१॥
जब तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है । इसी बीच में आत्मा का
कल्याण कर लो । अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ? ॥४॥
मूर्ख पुत्र का चिरजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है । बल्कि उससे वह पुत्र
अच्छा है, जो पैदा होते ही मर जाय । क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण
होता है, पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है ॥७॥
खराब गाँव का निवास, नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, खराब भोजन, कर्कशा
स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री ये छः बिना आग के ही प्राणी के शरीर
को भून डालते हैं ॥८॥
ऎसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न गाभिन हो । उसी प्रकार उस
पुत्र से क्या लाभ, जो न विद्वान हो और न भक्तिमान् ही होवे ॥९॥
सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं । पुत्र,
स्त्री और सज्जनों का संग ॥१०
जिस धर्म में दया का उपदेश न हो, वह धर्म त्याग दे । जिस गुरु में विद्या
न हो, उसे त्याग दे । हमेशा नाराज रहनेवाली स्त्री त्याग दे और
स्नेहविहीन भाईबन्धुओं को त्याग देना चाहिये ॥१६
           ११-----यह कैसा समय है, मेरे कौन २ मित्र हैं, यह कैसा देश
है, इस समय हमारी
क्या आमदनी और क्या खर्च है, मैं किसेके अधीन हूँ और मुझमें कितनी शक्ति
है इन बातों को बार-बार सोचते रहना चाहिये ॥१८
जैसे रगडने से, काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण
की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म, इन चार
बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है ॥२॥
भय से तभी तक डरो, जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय । और जन आ ही जाय
तो डरो नहीं बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो ॥३॥
            १२----निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता । वासना से
शुन्य मनुष्य
श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता । जड मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल
सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता ॥५॥
दरिद्र मनुष्य धन चाहते हैं । चौपाये वाणी चाहते हैं । मनुष्य स्वर्ग
चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते हैं ॥१८॥
               १३---मनुष्यों में नाऊ, पक्षियों में कौआ, चौपायों में
स्यार और स्त्रियों में
मालिन, ये सब धूर्त होते हैं ॥२१
संसार में पिता पाँच प्रकार के होते हैं । ऎसे कि जन्म देने वाला,
विद्यादाता, यज्ञोपवीत आदि संस्कार करनेवाला, अन्न देनेवाला और भय से
बचानेवाला ॥२२॥
उसी तरह माता भी पाँच ही तरह की होती हैं । जैसे राजा की पत्नी, गुरु की
पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी खास माता ॥२३॥
           १४--पक्षियों में चाण्डाल है कौआ, पशुओं में चाण्डाल कुत्ता,
मुनियों में
चाण्डाल है पाप और सबसे बडा चाण्डाल है निन्दक ॥२
भ्रमण करनेवाला राजा पूजा जाता है, भ्रमण करता हुआ ब्राह्मण भी पूजा जाता
है और भ्रमण करता हुआ योगी पूजा जाता है, किन्तु स्त्री भ्रमण करने से
नष्ट हो जाती है ॥४॥
            १५---जैसा होनहार होता है, उसी तरह की बुध्दि हो जाती है,
वैसा ही कार्य होता
है और सहायक भी उसी तरह के मिल जाते हैं ॥६॥
ऋण करनेवाले पिता, व्याभिचारिणी माता, रूपवती स्त्री और मूर्ख पुत्र, ये
मानवजातिके शत्रु हैं ॥११॥
लालचीको धनसे, घमएडी को हाथ जोडकर, मूर्ख को उसके मनवाली करके और यथार्थ
बात से पण्डित को वश में करे ॥१२॥
राज्य ही न हो तो अच्छा, पर कुराज्य अच्छा नहीं । मित्र ही न हो तो
अच्छा, पर कुमित्र होना ठीक नहीं । शिष्य ही न हो तो अच्छा, पर कुशिष्य
का होना अच्छा नहीं । स्त्री ही न हो तो ठीक है, पर खराब स्त्री होना
अच्छा नहीं ॥१३॥
बदमाश राजा के राज में प्रजा को सुख क्योंकर मिल सकता है । दुष्ट मित्र
से भला हृदय्कब आनन्दित होगा । दुष्ट स्त्री के रहने पर घर कैसे अच्छा
लगेगा और दुष्ट शिष्य को पढा कर यश क्यों कर प्राप्त हो सकेगा ॥१४॥
सिंह से एक गुण, बगुले से एक गुण, मुर्गे से चार गुण, कौए से पाँच गुण,
कुत्ते से छ गुण और गधे से तीन गुण ग्रहण करना चाहिए ॥१५॥
मनुष्य कितना ही बडा काम क्यों न करना चाहता हो, उसे चाहिए कि सारी शक्ति
लगा कर वह काम करे । यह गुण सिंह से ले ॥१६॥
समझदार मनुष्य को चाहिए कि वह बगुले की तरह चारों ओर से इन्द्रियों को
समेटकर और देश काल के अनुसार अपना बल देख कर सब कार्य साधे ॥१७॥
ठीक समय से जागना, लडना, बन्धुओंके हिस्से का बटवारा और छीन झपट कर भोजन
कर लेना, ये चार बातें मुर्गे से सीखे ॥१८॥
एकान्त में स्त्री का संग करना , समय-समय पर कुछ संग्रह करते रहना, हमेशा
चौकस रहना और किसी पर विश्वास न करना, ढीठ रहना, ये पाँच गुण कौए से
सीखना चाहिए ॥१९॥
अधिक भूख रहते भी थोडे में सन्तुष्ट रहना, सोते समय होश ठीक रखना, हल्की
नींद सोना, स्वामिभक्ति और बहादुरी-- ये गुण कुत्ते से सीखना चाहिये ॥२०॥
भरपूर थकावट रहनेपर भी बोभ्का ढोना, सर्दी गर्मी की परवाह न करना, सदा
सन्तोष रखकर जीवनयापन करना, ये तीन गुण गधा से सीखना चाहिए ॥२१॥
जो मनुष्य ऊपर गिनाये बीसों गुणों को अपना लेगा और उसके अनुसार चलेगा, वह
सभी कार्य में अजेय रहेगा ॥२२॥

7 टिप्‍पणियां:

saurabh dubey ने कहा…

हरीश जी आप तो बिदुर निति और चाणक्य निति के बारे में बता रहे है ,सुंदर रचना

रविकर ने कहा…

बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति ||

Rakesh Kumar ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
हार्दिक आभार.

बेनामी ने कहा…

harish jee sadar pranam ,BIDURNITI AUR CHANAKYANITI ke liye bahut bahut dhanyabad

GOURI SHANKER SUTHAR ने कहा…

अतिसुन्दर प्रस्तुति

GOURI SHANKER SUTHAR ने कहा…

अतिसुन्दर प्रस्तुति

बेनामी ने कहा…

ये सब पढकर मुझे बहुत अच्छा लगा

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